Friday 5 July 2024

राष्ट्रभक्त कवियत्री सुभद्रा कुमरी चौहान (लेखक : राजस्वी) के कुछ अंश : गाँधी से भेंट

गांधीजी से भेंट

'अतीत की गौरवगाथा में निमग्न होना प्रत्येक कवि के बस की बात नहीं है । इस कार्य में वही सफल हो सकता है, जिसके हृदय में देश की संस्कृति और परंपराओं के अमिट संस्कार हैं और जिसने इतिहास एवं पुराण का गहन अध्ययन किया हो तथा जो अपनी भावुकता के बल पर अतीत के गौरव के स्मरण से रसाभिभूत होने की क्षमता रखता हो। सुभद्राजी में इन तीनों बातों का समावेश है, इसीलिए वे एक सफल राष्ट्रीय कवयित्री के रूप में अमर हैं। "

डॉक्टर दुर्गेश नंदिनी

सन् 1931 में सुभद्राजी लक्ष्मण सिंह के साथ गांधीजी के सत्याग्रह आंदोलन में सक्रिय हो गई। इसी बीच उन्हें एक पुत्ररत्न की भी प्राप्ति हुई। सत्याग्रह आंदोलन ने देश भर में एक लहर सी पैदा कर दी थी और क्रांतिकारी आंदोलन भी अपने चरम पर था। चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव सहित कितने ही युवा क्रांतिकारी प्राणोत्सर्ग करके देश की युवा क्रांति के प्रेरणास्रोत बन गए थे। हिंसक क्रांति ने ब्रिटिश शासन को हिलाकर रख दिया था। सरकार अब पूरी तरह से अन्याय पर उतर आई थी। दूसरी गोलमेज सभा के असफल होते ही गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ कर दिया था। सरकार आंदोलन का दमन करने के लिए सभी प्रयास कर रही थी। आंदोलन में शामिल लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा था। मध्य प्रदेश में ब्रिटिश दमनचक्र अपने चरम पर था। आंदोलनकारी गिरफ्तारियाँ दे रहे थे और लगातार वंदेमातरम् का जयघोष कर रहे थे।

लक्ष्मण सिंह और सुभद्राजी पर भी गिरफ्तारी का संकट मँडरा रहा था । स्थिति ऐसी बन गई थी कि उन्हें कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता था।

"सुभद्रा !" लक्ष्मण सिंह गंभीरता से बोले, “सरकार का दमनचक्र जोरों पर है और हमें गिरफ्तार होना पड़ेगा, लेकिन तुम्हें स्वयं को गिरफ्तारी से दूर रखना है, क्योंकि बच्चों की देखभाल भी तो करनी है।"

" आप ठीक कह रहे हैं। मैं प्रयास करूँगी कि गिरफ्तारी से बची रहूँ, लेकिन लंबे समय तक बचे रहना संभव नहीं होगा ।"

प्रयास तो किया ही जा सकता है। बच्चों की ओर देखते हुए तुम्हें अपनी गतिविधियाँ कम करनी होंगी, जिससे अत्याचारी पुलिस की निगाह से तुम बची रहो। "

"ऐसा होना कठिन है।" सुभद्रा ने कहा, " गिरफ्तारी के भय से मैं अपने कर्तव्य पथ से पीछे नहीं हदूंगी। दुनिया क्या कहेगी कि औरों को वीरता और शौर्य की कविताएँ सुनानेवाली सुभद्रा स्वयं भयभीत होकर घर में बैठ गई । " नहीं, ऐसा तो मैं कभी नहीं चाहूँगा । तुम्हारी कलम और कविता का प्रभाव मैंने देखा है। लोगों में नई चेतना और राष्ट्रीयता का भाव जगाने के लिए तुम्हें सक्रिय तो रहना ही होगा, फिर भी सावधानी बरतने की आवश्यकता है । " "हाँ, आप सही कहते हैं । मैं इसका ध्यान रखूँगी । आप निश्चिंत रहें और अपने कर्तव्य का निर्वाह करते रहें ।" लक्ष्मण सिंह जानते थे कि उनकी पत्नी को देशभक्ति, समाज सेवा और पारिवारिक दायित्वों में सामंजस्य बनाए रखने की कला भली-भाँति आती है। लक्ष्मण सिंह को अपनी पत्नी पर गर्व था। कुछ दिनों बाद वे गिरफ्तार कर लिये गए। सुभद्राजी ने स्वयं को गिरफ्तारी से दूर रखा। पति के जेल जाने से परेशानियाँ तो बढ़नी ही थीं और घर की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी । जैसे-तैसे करके वे घर का खर्च चला रही थीं । वे जनजागरण के कार्यों में भी सक्रिय थीं। राष्ट्रीय आंदोलन के वरिष्ठ नेताओं तक उनकी ख्याति पहुँच गई थी ।

उसी समय आधुनिक युग की 'मीरा' कही जानेवाली कवयित्री महादेवी वर्मा, जो कि सुभद्रा की सखी भी थीं,उनसे  मिलने के लिए आई। वे दोनों प्रयाग के विद्यालय में साथ-साथ पढ़ चुकी थीं । महादेवी वर्मा सुभद्रा की कविताओं से बहुत प्रभावित थीं। उन्होंने सुभद्रा की कविताओं की भूरि-भूरि प्रशंसा की । इन दोनों सखियों के बारे में 'जैसा जीवन जिया' लेख में सुधा चौहान ने लिखा है-

जिस समय सुभद्रा ने लिखना शुरू किया था, उस समय हिंदी संसार में दो लेखिकाओं की अधिक ख्याति थी। एक वे स्वयं और दूसरी महादेवी वर्मा । बचपन में इलाहाबाद में स्कूल में पढ़ते समय भी दोनों का कुछ समय तक साथ रहा था। दोनों अलग-अलग कक्षा में पढ़ती थीं । सुभद्रा अधिक चंचल स्वभाव की थीं। उन्हें पता लगा कि यह चुप रहनेवाली लड़की भी कविता लिखती है तो उन्होंने सारे हॉस्टल को महादेवी की कविता की कॉपी दिखा दी और उनके संकोच को अपने उन्मुक्त स्वभाव से जबरन दूर कर दिया ।"

फिर भी बचपन का लिखना पढ़ना तो शेष अन्य कार्यों के समान खिलवाड़ ही था और इस खेल में दोनों एक-दूसरे की सखी थीं। उनमें तनिक भी प्रतिद्वंद्विता नहीं थी, फिर सुभद्रा की शादी हो गई। असहयोग की पुकार पर उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और तन - मन से कर्मक्षेत्र में कूद पड़ीं। महादेवी की पढ़ाई अबाध चलती रही। उन्होंने स्कूल की पढ़ाई पूरी की, विश्वविद्यालय की शिक्षा पूरी की और फिर स्वयं स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में बहुत काम किया तथा कविता के क्षेत्र में भी बहुत नाम किया । छायावादी कवियों में उनका प्रमुख स्थान है।

सुभद्रा कविता-स्रोतस्विनी, उनके बहुआयामी जीवन, जिसमें घर-गृहस्थी बच्चे, राजनीतिक एवं सामाजिक कार्य, परिवार-परिजन सभी कुछ था, उनमें खंड-खंड विभक्त होकर फिर भी कविता के रूप में, तो कभी कहानी के रूप में और कभी बच्चों की कविता के रूप में अभिव्यक्ति पाती रहीं, लेकिन उसकी अविच्छिन्न धारा, जो प्रारंभ में थी, वह फिर नहीं लौटी और बिखरी ही रही। उन्होंने कहानियाँ लिखीं, बच्चों के लिए बहुत ही सुंदर कविताएँ लिखीं, लेकिन यह लेखन जीवन की मूलधारा के पड़ाव जैसे थे। यह जीवनधारा के साथ समगति से चलनेवाला पहले जैसा लेखन नहीं था।

महादेवी की एकांत साधना कविता में और स्त्री की शिक्षा के क्षेत्र में पल्लवित-पुष्पित हुई । कविता के क्षेत्र में उनका स्थान बहुत ऊँचा है। अपने समकालीनों में बड़े सम्मान का स्थान है, परंतु सुभद्रा और महादेवी की मैत्री तो जैसी निर्मल थी, वैसी ही सदा रहती आई | वे जब आपस में मिलती थीं, उनका लेखिका या सामाजिक कार्यकर्ता का रूप इस चिरंतन सखीत्व के आगे दुबक सा जाता था । फिर तो दो समवयस्क स्त्रियाँ साथ बैठकर साड़ियों की चर्चा करती थीं। आपस में चूडियों का आदान-प्रदान होता था और एक-दूसरे के हाथ की बनाई चीजें खाई जाती थीं। दोनों साथ-साथ बाजार जाती हैं कि गांधी आश्रम से खोजकर एक सी साड़ियाँ ले आएँ । जब कभी किसी कवि- सम्मेलन या सभा में दोनों को साथ-साथ जाना होता था तो इनमें पहले यह तय हो जाता था कि कभी कोई हँसी की बात होगी तो वे एक-दूसरे की ओर देखेंगी नहीं । आँखें मिलने पर तो खिलखिलाहट रोकना मुश्किल हो जाएगा और सार्वजनिक स्थान में ऐसा अनाचार ठीक नहीं। उनकी यह मैत्री सदा ही निर्मल रही ।

महादेवी जबलपुर कम ही जा पाती थीं, जबकि सुभद्रा का वर्ष में इलाहाबाद का एकाध चक्कर लग ही जाता था । वे कहीं भी आती-जाती हों, रास्ते में वे सीधे महादेवी के घर पहुँच जातीं। चाहे वे घर में हों या कॉलेज में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। वे अपना सामान रखकर इत्मीनान से बैठ जातीं और महादेवी के लिए जो छोटे-मोटे उपहार लेकर आतीं, उन्हें निकाल लेतीं। तब तक महादेवी को भी अतिथि की सूचना मिल जाती थी और वे आकर देखतीं कि सुभद्रा अपनी गृहस्थी फैलाए इत्मीनान से भगतिन ( उनकी नौकरानी) से बातचीत कर रही हैं । यहाँ आत्मीय घरेलूपन जहाँ महादेवी के अंतर्मन को स्नेह से भिगो देता था, वहीं सुभद्रा के लिए वह कुछ नितांत सहज था। संबंधों के इस आत्मीय सहज स्तर के सिवा दूसरा कुछ उन्होंने जाना ही नहीं।

एक बार सुभद्राजी महादेवी वर्मा से भेंट करने के लिए इलाहाबाद आई। दोनों बड़ी सहृदयता से एक दूसरे के गले मिलीं। सामान्य शिष्टाचार और जलपान के बाद सुभद्रा और महादेवी वर्मा के बीच अनेक विषयों को लेकर बातचीत का दौर शुरू हो गया।

"सुभद्रा ! वाकई तुमने काव्य-क्रांति को बल दिया है । 'झाँसी की रानी' जैसी कविता लिखकर तुमने राष्ट्र-जागरण कर दिया है। गांधीजी भी तुम्हारी कविता पढ़कर गद्गद हो उठे हैं और वे तुमसे भेंट करने की इच्छा रखते हैं । " महादेवी वर्मा ने कहा ।

'मैं स्वयं उनके दर्शन करने की इच्छुक हूँ। वे इस सुषुप्त देश को जगानेवाले क्रांतिदूत हैं। उन्होंने सत्य और अहिंसा का सफल प्रयोग करके विश्व भर में भारतीय क्रांति को एक नई पहचान दी है। ऐसे महापुरुष के दर्शन करना तो मेरा सौभाग्य होगा ।" सुभद्रा हर्षित होती हुई बोलीं।

'चलो, तो फिर चलते हैं आनंदभवन...बापू (गांधीजी) वहीं आए हुए हैं।"

"ठीक है । "

दोनों कवयित्री गांधीजी से भेंट करने के लिए चल पड़ीं। जब भेंट हुई तो गांधीजी भी हर्षित हो उठे।

'यह मेरा परम सौभाग्य है कि आज एक साथ माँ भारती की दो छवियों के दर्शन हुए। यह अद्भुत दृश्य है। काव्य की दो महान् रश्मियाँ एक साथ! एक की रचना में नारी का ममतामयी रूप मन को मोह लेता है तो दूसरी की रचना नारी के शौर्य और साहस की प्रतिमूर्ति है । विश्व का इतिहास भी आप दोनों पर गर्व करता है । देश आपके प्रति सदैव कृतज्ञ रहेगा । "

दोनों सखियाँ गांधीजी के मुँह से अपनी प्रशंसा सुनकर गद्गद हो उठीं।

'आज देश 'स्वराज' के भी इस कार्य में सहयोग

" किसी भी देश की स्वतंत्रता में नारी का योगदान बहुत आवश्यक है और आप दोनों ने अपने कर्तव्य का भली- भाँति निर्वाह किया है। ईश्वर आपके विचारों को और भी प्रखर करे।" गांधीजी ने कहा, लिए संघर्षरत है। हमने भी स्वराज फंड के माध्यम से सबका सहयोग माँगा है । आप करें।"

सुभद्रा कुमारी की आर्थिक स्थिति तो किसी से छिपी नहीं थी । वे क्या दान करतीं ! उन्हें बड़ी लज्जा का अनुभव हुआ। महादेवी वर्मा के पास चाँदी का एक कटोरा था, जो उन्हें पुरस्कार में मिला था। उन्होंने उसे स्वराज फंड में दान कर दिया। सुभद्राजी अपने हृदय में हीनभावना महसूस कर रही थीं, लेकिन वे विवश थीं। गांधीजी से उनकी भेंट की सूचना सबको मिल चुकी थी । किसी माध्यम से उनकी आर्थिक स्थिति की बात सुभाषचंद्र बोस तक पहुँची। अतः सुभाषचंद्र बोस ने कुछ सहायता राशि की व्यवस्था करके सुभद्राजी को भिजवाई। ऐसे विकट समय में प्राप्त इस धनराशि से सुभद्रा को बड़ा सहारा मिला।

यह देखने में आता है कि सुभद्रा की रचनाओं में भावुकता का स्थान सर्वोपरि है, किंतु उनकी भावुकता नितांत भावुकता न थी। इस बारे में अप्रैल 1948 के 'हंस' के अंक में गजानन माधव मुक्तिबोध ने वर्णन किया है

 "सुभद्राजी की भावुकता कोरी भावुकता नहीं है, बल्कि बाह्य जीवन पर संवेदनात्मक मानसिक प्रतिक्रियाएँ हैं । यही कारण है कि उनकी कविताओं में भाव मानव-संबंध से, मानव-संबंध विशेष परिस्थिति से और विशेष परिस्थिति सामाजिक राष्ट्रीय परिस्थिति से एक अटूट संबंध - शृंखला में बँधी हुई है। भाव के सारे संदर्भों का निर्वाह उनके काव्य में हो जाता है। इससे उनकी वास्तविक भाव-संपन्नता का और संवेदनशीलता का चित्र हमारे सामने खिंच जाता है।'

अपने जीवन की संवेदनशीलता के इतिहास के प्रति चेतन मनुष्य यह स्वीकार करेगा कि स्वस्थ साधारण मनुष्य की सही चेतना-शैली है। इससे सुभद्राजी की प्रगतिशीलता का, बाह्य परिस्थिति पर संवेदनात्मक प्रतिक्रिया करने की उनकी शक्ति का, व्यावहारिक सामाजिक जगत् में रहनेवाले मनुष्य, जिसमें प्रत्येक मनुष्य रहता है, छायावादी कवि स्वयं रहता हैके भाव - चरित्र का पता चल जाता है। अतः इससे बड़ी सफलता और क्या हो सकती है कि कोई कवि वास्तविक संवेदनशील मनुष्यता की तसवीर उतारे अथवा अपनी शक्ति के अनुसार अपने स्वयं के भाव - जीवन के द्वारा उसका प्रतिनिधित्व करे ? सुभद्राजी की सरल भावमयी शैली की यह सुंदरता है । "

सुभद्राजी की लोकप्रियता और कार्यशैली ने वरिष्ठ राजनीतिज्ञों को भी बहुत प्रभावित किया । इनमें से लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल भी थे। सरदार पटेल ने कांग्रेसी नेताओं के सामने सुभद्राजी को राजनीति में सक्रिय रूप से लाने का प्रस्ताव रखा, जो सहर्ष स्वीकार कर लिया गया । यह वर्ष 1936 की बात है । इस समय प्रांतीय चुनाव होनेवाले थे। जबलुपर में सुरक्षित महिला सीट से सुभद्राजी को चुनाव लड़ाने का विचार बन गया। सरदार पटेल ने सुभद्रा को पत्र लिखकर उनसे आग्रह करके उन्हें चुनाव लड़ने के लिए राजी कर लिया है।

जैसा कि चुनाव-पद्धति में देखा जाता है कि कितना भी सच्चा और देशभक्त क्यों न हो, उसे भी विरोधों का सामना करना पड़ता है। कुछ विरोधियों ने उनके विरुद्ध एक और महिला को चुनाव में उतार दिया, लेकिन प्रथम दृष्ट्या नामांकन जाँच में ही उसका नामांकन रद्द हो गया । उसमें कुछ त्रुटियाँ थीं। परिणाम यह हुआ कि सुभद्रा निर्विरोध निर्वाचित हो गईं। उनकी इस सफलता के साथ ही उनका राजनीतिक जीवन आरंभ हो गया। पहले की अपेक्षा अब उन पर कार्यभार भी बढ़ गया था । व्यस्तता अधिक हो गई थी।

अब सुभद्राजी कांग्रेस की सक्रिय नेता थीं तो कार्यभार बढ़ ही जाना था । लक्ष्मण सिंह जेल से बाहर आ गए थे और वे वकालत के क्षेत्र में उतर गए थे, जिससे घर का खर्च चल सके । यद्यपि उनकी वकालत ठीक से नहीं चल पा रही थी और घर की आर्थिक स्थिति निरंतर खराब होती जा रही थी, लेकिन वे अपने प्रयासों में लगे हुए थे। इसी समय दुर्भाग्य ने अपना रंग दिखाया। सुभद्रा 1939 में पुन: गर्भवती थीं, लेकिन साथ ही उन्हें ट्यूमर भी हो गया। उस वर्ष कांग्रेस का अधिवेशन त्रिपुरा में होना था।

" तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक नहीं है । " लक्ष्मण सिंह ने चिंतित स्वर में कहा, "ऐसे में लंबी यात्रा करना उचित नहीं होगा ।"

" जाना तो होगा। इस बार फिर नेताजी अधिवेशन के अध्यक्ष हैं । और वे सबकी उपस्थिति को आवश्यक मानते हैं।" सुभद्रा ने अपनी बात रखते हुए कहा ।

" लेकिन तुम्हारा स्वास्थ्य भी तो ठीक नहीं है । "

हिम्मत तो करनी ही पड़ेगी। आप निश्चिंत रहें। अब इतना भी खराब नहीं है मेरा स्वास्थ्य! यह सब तो लगा ही रहता है। आप घबराए नहीं । मैं चली जाऊँगी । ऐसी कठिनाइयों से घबराकर हमें अपने अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटना चाहिए। जहाँ साहस होता है, वहाँ सफलता भी तो होती है।"

" तुम्हारे साहस की जितनी भी प्रशंसा की जाए, उतनी ही कम है।" लक्ष्मण सिंह गर्व से बोले, “कई बार मेरा साहस टूट जाता है, लेकिन तुम अद्भुत हो । वास्तव में यह मेरा सौभाग्य है कि जो तुम मेरी जीवन संगिनी बनीं।"

सुभद्रा अपने पति से मिली प्रशंसा पर सदैव ही लजा जाती थीं । उन्होंने कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। जब सबको यह पता चला कि गंभीर अस्वस्थता के होते हुए भी वे सम्मेलन में आई हैं तो सबने उनके देशप्रेम और समर्पण की प्रशंसा की। अपने कर्तव्य के प्रति उनका यह समर्पण भाव अद्भुत और प्रेरणादायी था, जिसे स्वयं सुभाषचंद्र बोस ने भी सराहा। अन्य वरिष्ठ नेताओं ने भी उनकी खूब प्रशंसा की ।

अधिवेशन से लौटने के बाद सुभद्राजी का स्वास्थ्य और भी खराब हो गया । लक्ष्मण सिंह ने जैसे-तैसे करके उनका उपचार भी कराया। यह बहुत ही कठिन समय रहा । उनकी आर्थिक स्थिति इतनी खराब होती जा रही थी कि पति- पत्नी असहाय से हो जाते थे, फिर भी सुभद्रा ने अपने पति को साहस एवं धैर्य बनाए रखने को कहा। 

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