Sunday 21 July 2024

ऐ आईने नया कुछ दिखला दे ! डा० विजय सिंह



ऐ आईने नया कुछ दिखला दे !

देखा नहीं सदियों ने अबतक या, ना देखा होश में हमने कभी !
मुल्क जो बदलता है करवटें उठ कर खडा होगा कभी  ?

सपने-दर-सपने बीतती है उम्र सारी, जैसे बीती है हमारी, वैसे बीतेगी तुम्हारी.
वही पुरानी शक्ल देखी, जब भी देखी, ए आईने ! कुछ तो नया दिखलाते कभी !

देखे हैं मैंने ख़्वाब भी किस-किस तरह के, दावते ही हर तरफ हैं और चिरागां हर तरफ
कोई फितरत भी नहीं है, कोई नफरत भी नहीं,
होश आने पर ये पाया, कुछ नहीं, कुछ भी नहीं.

इस जमाने की हकीकत वाकई कुछ और है !
सीखकर पाया जो हमने वो तजुर्बा कुछ और है !
कुछ बुजुर्गों ने बताया पर है दिखाया और कुछ,
ठोकरें खाकर जो पाया वो एक दफा कुछ और है !

होश धुआं बन उड़ा पर फिकरा है फिर भी वहीं.
या ज़िन्दगी धुआं बनी, या आईना बनकर खड़ी !
कौन पूछे, किससे पूछे, अब किसको है किसकी पड़ी.
उम्मीद भी किससे करो कौन सी है ये घडी  ?

मुल्क के खातिर जियो और मुल्क के खातिर मरो.
यही तो कहते वो हमसे चाहे उनसे पूछ लो !
एक राह दिखला करके हमको खुद दूसरे पर वो चले.
कैसी रियाया हम बनें और कैसे रहबर वो बने !

अमिताभ—फारूक हैं बहुत, कुछ भगत सिंह अब चाहिए.
होश वाले हैं बहुत, कुछ मदहोश भी अब चाहिए !
ज़ेहन वाले हैं बहुत, कुछ सरफिरे अब चाहिए !
जो ना होता हो कहीं भी कुछ वैसा होना चाहिए.

कल सुबह उठोगे जब फिर, एक पुरानी होगी सुबह !
फिर पुराना दिन मिलेगा जैसी पुरानी रात थी !
एक पुराना आईना होगा कहीं तकिये के पास,
ऐ आईने ! फिर क्या दिखाएगा फिर वही सूरत उदास ?


06.12.2011


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