मेरे पूर्वज उत्तर प्रदेश(अवध)के फैजाबाद में स्थित खपड़ाडीह रियासत के गर्गवंशी क्षत्रिय
थे । ग़दर के पूर्व दो भाईओं में से एक खपड़ाडीह के राजा हुए और दूसरे नवासा पर जौनपुर
आये थे । ग़दर के समय बागी होने के कारण अंग्रेजों ने आक्रमण कर दिया । मेरे दो पितामह
घर की औरतों सहित सारा सामान और मवेशियों को लेकर बैलगाड़ियों से किसी निरापद स्थान
की और बढ़ गए । शेष बचे पांच भाई । दो युद्धस्थल पर वीरगति को प्राप्त हुए और दो को
वहीँ अपने बगीचे में आम के वृक्ष पर फांसी दे दी गयी । एक भाई को काले पानी की सजा
हुई ।
1857 की बात है । बड़ी-बड़ी रियासतें
लुट चुकी थी । छोटी-छोटी रियासतें दम तोड़ रही थी । आंगल आततायियों से धरा लहू-लुहान
हो चुकी थी । पदाक्रांत से उडी गर्द से नभ छिप चुका था । अपने पराये छद्दम वेश में
लुटी जागीरों के अवशेषों के साथ प्रश्रय खोज रहे थे ।
ऐसी ही एक शाम थी जब बैसवाड़े के क्षत्रिय
राव राजा जू के दरबार में दो अंग्रेज आये । उन्होंने कहा कि आश्रय चाहिए । आपकी शरण
में आये हैं । राव राजा ने असमर्थता प्रगट की । मैं आक्रमणकारीयों को आश्रय नहीं दे
सकता ।
राजा की अहीर प्रजा ने उन दोनों अंग्रेजों
को अपने यहाँ छिपा लिया । दो दिनों के बाद अंग्रेजों की विजय हुई । पूरे बैसवाड़े पर
उन लोगो का अधिकार हो गया । उन अंग्रेजों ने पूरी रियासत उन अहीरों को दे दिया । राजा
ने बैसवाडा छोड़ने की तैयारी की ।
उसी दिन वो ग्यारह सौ बैलगाड़ी पर सामान-असबाब
लेकर अपने सगे सम्बंधियो के साथ सारे नौकरों,आश्रितों और मवेशियों के साथ निरापद स्थान खोजने निकल
पड़े । राजा की बैलगाड़ियां इलाहाबाद में खुसरोबाग से चार मील दूर निहालपुर गाँव में
रुकीं । उन्होंने यहीं कच्चे गारे मिटटी का बड़ा सा घर बनवाया । लेकिन दूसरी तरफ बैलगाड़ियों
के आगे बढ़ने का क्रम लागू रहा ।
एक दिन राजा जू बाहर खड़े थे । साथ में
उनके १८ वर्षीय पुत्र कुंवर जी भी थे । अचानक एक बैलगाड़ी रुकी । उसमें से साफा बांधे
एक दम्पति अपनी पांच वर्ष की लडकी को लेकर उतरे । उसने पूछा आप ही बैसवाड़े के राव राजा
जू हैं । राजा ने स्वीकृति से सर हिलाया । उसने अपनी पगड़ी राजा साहब के पैरों पर रख
दी । कहा- म्हारो लाज राखो सरकार, छोरी बड़ी खूबसूरत हो, लुट जावेगी । पीछे अंग्रेज
पलटन आ रही है । उस पुरुष के साथ एक ब्राह्मण भी था । ब्राह्मण ने गंगाजली से पानी
पानी डाला और पास की चुंदरी की पोटली खोलकर कुंवर से कहा सिन्दूर लगाईये । राजपूत ने
एक अशर्फी की थैली और एक नारियल राजा के पैरों पर रखा और जल्दी से गाडी पर सवार हो
गए । लडकी अपने को वहां अकेला पा घबरा उठी । राजा साहब को पकड़ कर काकू-काकू कहकर रोने
लगी । भागती बैलगाड़ियों को देख लडकी छटपटा उठी । लडकी भौचक खड़ी उसकी समझ में कुछ न
आया ।
इस अप्रत्याशित घटना से पिता-पुत्र
दोनों ही हतप्रभ हो गए । राजा बच्ची को गोद में लेकर घर आ गए । भीतर जाकर स्त्रियों को बच्ची सौप दी और साड़ी घटना
बतला दी । शाम के समय लडकी नींद से भरी राजा के कमरे को खोजती हुई आयी । राजा साहब
आँखे बंद करके कुछ सोच रहे थे । उन्होंने देखा कि लडकी नींद से भरी है । आँखों में आंसू है । शायद माँ को खोज रही है ।
उसने भरे गले से कहा- काकू मोय सुलाय लो । राजा साहब ने उसे जल्दी गोद में उठा लिया
।
कालान्तर में वह अति सुन्दर नवंगना
बन गयी । एक दिन औरतों ने राजा साहब को कहा कि यह खूबसूरत ही नहीं है, इसके शरीर से
कमल, केवड़े जैसी खुशबू आती है । रोज की भांति उस दिन जब बहू ने आकर राजा साहब का पैर
छूआ,राजा साहब ने आशीर्वाद दिया और उसका नाम पद्मिनी रख दिया ।
उस दिन से धीराज कुंवर पद्मिनी नाम
से बुलाई जाने लगी । उसकी खूबसूरती पर कुंवर जी भी मुग्ध हो गए थे ।
अंध गंध
रस आकुल प्रमत्त,विमुग्ध कंज वन ।
सुसंस्कृत मस्तिष्क वाह्य सौन्दर्य
से कदापि नहीं अटकता । कुंवर का आतंरिक ह्रदय काव्य के उत्फुल्ल स्रोत से भरा हुआ था
और उस सौदर्य से विभोर होकर वे बाहरी सौन्दर्य भूल चुके थे । वह गंभीर अध्ययन में रत
हो गए । यहीं से उनके मस्तिष्क में यह भावना जागृत हुई कि शैशवकालीन खड़ी बोली जो लडखडाते
क़दमों से खड़ी हो रही है, उसके उन्नयन के प्रति क्यों न आग्रहशील हुआ जाए ।
यही कुंवर साहब ठाकुर राम नाथ सिंह
के नाम से ब्रज भाषा के कवि के रूप में सामने आये । यह काल भारतेंदु काल से ज़रा पहले
का था । साहित्य जगत में खड़ी बोली का नवीन स्वरूप लेकर सामने आये । इन्होने खड़ी बोली
के उद्भव, विकास, प्रसार एवं प्रचार में सक्रिय, सार्थक एवं सुद्दढ़ योगदान दिया । उत्तर
प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार के साहित्यकारों से संपर्क स्थापित किया । साथ ही खड़ी
बोली में कविता, कहानी एवं नाटक लिखना आरम्भ किया । उन्होंने हस्तलिखित तीन प्रतियां
प्रस्तुत की । हर तीन महीने में एक-एक कर तीन प्रतियां निकलती थी । यह प्रतियां उत्तर प्रदेश,
मध्य प्रदेश और बिहार में घूमती थी । जबतक यह प्रतियां पढ़कर लौटाई जाती, दूसरी प्रतियां
तैयार हो जाती थी । व्याकरण के आधार पर खड़ी बोली शुद्ध हो, इस पर विशेष ध्यान दिया
जाता था । अभिव्यक्तियों का सुविन्यस्त स्वरूप होना आवश्यक है, यह भी चर्चा का विषय
रहता था । त्रुटियों पर ध्यान देते हुए उसके अनुरूप संशोधन होते रहते थे ।
मेरे नाना ठाकुर रामनाथ सिंह के दो
पुत्र और चार पुत्रियाँ थीं । उनके प्रथम पुत्र ठाकुर राय प्रसाद सिंह प्रयाग के थानेदार
थे । वह क्रांतिकारी दल में गुप्त रूप से संलग्न थे । पुलिस थानेदार सिर्फ इसलिए बने ताकि अपने संगठन को सरकार
की गतिविधियों और गुप्त बातों का भेद दे सके । पुलिस की लाल टोपी पहनना आवश्यक था परन्तु
वह गांधी टोपी पहनना ज्यादा गर्व की बात समझते थे । उनके पुलिस अधिकारी ने इसका कड़ा
विरोध किया । वह इस नौकरी में जिस उद्देश्य से आये थे पूरा होते ही नौकरी से इस्तीफा
दे दिया ।
श्री राम नाथ सिंह के द्वितीय पुत्र
श्री राज बहादुर सिंह [1]एक प्रतिष्ठित यशस्वी वकील थे । चार पुत्रियों में प्रथम पुत्री राजवती देवी ब्रजभाषा
की कविता लिखती थीं । दूसरी थी सुंदरी देवी जो हल्दीघाटी राज्य
की रानी थीं और जिनकी ननद मझौली राज्य की रानी थीं । सुन्दर मौसी श्री महावीर प्रसाद
द्विवेदी, प्रख्यात साहित्यकार, की शिष्या थी । वह खड़ी बोली में कविता एवं कहानियां
लिखती थी जिसे द्विवेदी जी “सरस्वती” पत्रिका में प्रकाशित करते थे । तीसरी मौसी सुभद्रा
कुमारी चौहान “झाँसी की रानी” लिखकर स्वयम भी साहित्य जगत की रानी झाँसी बन चुकी थीं
। चौथी, मेरी माँ कमला कुमारी थीं । इनकी कविता प्रयाग के “चाँद” में
श्री सहगल जी के सम्पादन काल में मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुआ करती थी । श्री विष्णुराव
पराड़कर काशी के “दैनिक आज” के सम्पादक थे । उसमें माँ की कहानिया प्रकाशित होती थी
। ये कहानीय वृहद् चर्चा का विषय बनती थीं । हिंदी की “श्रेष्ठ कहानी लेखिकाएं” के
संकलन में इनकी “मिलन” नामक कहानी है । यह चारो बहनें और श्रीमती महादेवी वर्मा इलाहबाद
के क्रोस्थवेट गर्ल्स कॉलेज (Crosthwaite Girls College [2]) में हॉस्टल में साथ रहकर पढ़ती थीं । महादेवी वर्मा पहले ब्रज भाषा में कविता लिखती थीं । सुभद्रा मौसी ने उन्हें खड़ी बोली में कविता लिखना सिखलाया ।
सुभद्रा मौसी असहयोग आन्दोलन में कूद पड़ी । जिस दिन मेरे मौसा जी लक्ष्मण सिंह से मौसी की शादी हो रही थी और अभी शादी की विधिया बाकी ही थीं कि पुलिस नव दम्पति को गिरफ्तार करने के लिए आकर खड़ी हो गयी । दोनों जेल गए । वैसे क्षत्रियों को वरदान था कि सांप नहीं काटेगा । मौसियाँ सांप से खेला करती थीं । अगर बिस्तर पर लेटे हों तो सांप रेंगते हुए निकल जाते थे लेकिन इन लड़कियों को न कोई नुकसान होता था न ही भय । यहाँ तक कि पैर से दबने के बावजूद सांप नहीं काटते थे । ।
मेरे बड़े मामा श्री राम प्रसाद जी की पत्नी झाँसी के नम्बरदार की लड़की थी । उनके पिता चंदेल राजपूत थे । एक दिन सुनहरी नागिन खूंटी पर लटकी हुई थी । मामी को लगा कि किसी की मोटी सोने की चेन खूंटी पर लटकी है । जैसे ही उसके पास उंगली ले गयी, नागिन फुंकार उठी । यही वजह थी कि इन्हें निहालपुर गाँव छोड़ना पड़ा । ये लोग बाँदा चले गए ।
मेरे पिताजी का नाम श्री हुबदार सिंह था । इनका बचपन रंगून में बीता । मेरे एक बाबा रंगून में चावल और लकड़ी का व्यापर करते थे । रंगून में उनके सात बड़े-बड़े स्टीमर चलते थे । जहाँ पिताजी रहते थे उससे कुछ दूर प्राण जीवन मेहता का घर था । वे हीरे के खान के व्यापारी थे । उनके घर महात्मा गाँधी आकर ठहरे थे । गाँधी जी उनके बगीचे में सबेरे टहलते थे । मेरे पिताजी भी काफी सुबह उठकर अपने काम में व्यस्त हो जाया करते थे । उन्होंने तीन बार अपने आदमी भेजकर मेरे पिताजी को बुलवाया । पिताजी ने कहा- मेरे विचार सावरकर जी से मिलते हैं ।
मेरे पिताजी स्पष्टवादी,कर्तव्यनिष्ठ एवं बहुमूल्य समय को सही ढंग से व्यतीत करने वालों में से थे । एक तरफ स्कूल की शिक्षा प्राप्त करते थे तो दूसरी तरफ दो अंग्रेजों को हिंदी की शिक्षा देते थे । पिताजी अपनी पढाई पूरी करके मेरे छोटे मामा के साथ वापस जौनपुर आ गए । उनका विवाह 1921 में हुआ । इस समय पिताजी जौनपुर में अपना व्यापार कर रहे थे । मेरा जन्म 1923 ई0 में ननिहाल,निहालपुर गाँव इलाहाबाद में हुआ । इन्हें अमेरिका की कंपनी में नौकरी मिल गयी । पिताजी रंगून चले गए । उसके बाद कंपनी वालों ने जमशेदपुर(झारखण्ड) भेजा। इनकी नौकरी कुछ महीनों बाद दरभंगा में हो गयी ।
मैं १९२७ में दरभंगा के लहेरियासराय
के बंगाली टोला में रहने लगी । मेरे मकान मालिक श्री मजुमदार साहब थे । वहां उनके बगीचे
में मैं आम या अमरुद के पेड़ के निकट रहा करती थी । मेरे मकान से सटा हुआ एक कच्चा तालाब
था । बांसों का झुरमुट था । उसी से सटा बंगाली स्कूल था । मैं स्कूल जाने से पहले उसी
तालाब के किनारे बैठती थी । खामोश पानी में बांसों की परछाई और बतखों का तैरना देखती
। जब स्कूल की घंटी बजती तो बस्ता उठाकर स्कूल जाती । ठीक तालाब के पास ही से छोटी
चहारदीवारी थी । उसके दूसरी तरफ बहुत बड़ा जंगल था । वह जंगल नेपाल की सरहद में था ।
नेपाली औरतें मेरे घर के पीछे की दीवार फांद कर आना-जाना करतीं । बाबा ने एक बार मुझसे कहा कि
बेटा इधर से किसी को भी आने-जाने नहीं देना । एक दिन चार-पांच नेपाली औरतें जा रही
थीं । मैंने उन्हें मना किया । मेरी उम्र उस समय मुश्किल से चार वर्ष रही होगी । मैं
जिद पर आ गयी । रास्ता रोक कर खड़ी हो गयी । उनलोगों को जाने नहीं दे रही थी । उनमें
से एक ने गुस्से से या फिर मुझे डराने के ख्याल से कमर से कटार खींचकर निकाली । ऐसा
लगा जैसे मार देगी । मैं जोर से चीखी- “बाबा-बाबा ।” लेकिन खींची हुई कटार मैं सम्मोहित
देखती रह गयी । सूरज की रौशनी में चमकती हुई कटार, उसका चंदीला पानी मेरे मन की झील
में कहीं गहराईयों में उतर गया । मरने से कहीं ज्यादा मुझको वो चमक अच्छी लग रही थी
। पीछे के जंगलों में जाना मना था । वहां समाधियों में तो जाना ख़ास तौर से मना था ।
मैं उन समाधियों में इर्द-गिर्द बार-बार घूमा कराती । मुझे वहां बैठना, उन समाधियों
पर लिखे शब्दों को पढना बहुत अच्छा लगता था । हमें यही लगता था कि जिनकी समाधि होगी
वो कैसे होंगे, क्या करते होंगे । यही कौतुहल मुझे परेशान करता रहता था ।
रात को माँ ने एक कहानी सुनायी । एक
शाहजादा था । जंगल में घूम रहा था । सांप ने काट लिया । वह मर गया । अगर विष ख़त्म करने
को जड़ी मिल गयी होती तो शाहजादा जीवित हो सकता था । उस शहजादे की एक बहन थी । उसके
एक पैर की सोने की पायल खो गयी । मेरे दिमाग में रात भर यह कहानी घूमती रही । दूसरे
दिन काफी सबेरे मैं नहा-धोकर तैयार हुई । अपना गर्म कोट पहनकर जंगल की ओर मृतक शहजादे
को खोजने निकल पड़ी । न कहीं मृतक शाहजादा मिला और न कोई सोने की पायल ही मिली । घर
लौट कर माँ ने खूब पिटाई की । माँ ने पूछा-“कहाँ गयी थी इतनी देर लगा दी ।” मैंने
रोते हुए कहा- “वो जो शाहजादा मरा था न ...।” माँ ने अधूरी बात सुनते हुए ही झुंझुला
कर फिर मारा । लेकिन माँ यह भूल गयी थी कि बच्चों को इतनी दुःख भरी कहानी नहीं सुनानी
चाहिए थी । अब भी उस मृतक शाहजादे की मज़ार मेरी कलम में है ।
पिताजी का तबादला बनारस हो गया । इसी नौकरी में उन्हें पुनः रंगून जाना पड़ा । मेरी माँ कांग्रेस में शामिल हो गयी । पिताजी को रंगून खबर भेजा गया कि असहयोग आन्दोलन में मेरी माँ के नाम वारंट निकला है । पिताजी नौकरी से इस्तीफा देकर वापस लौट आये । सन् 1928 में वह स्वतन्त्र रूप से बनारस के चेतगंज मोहल्ले में होमियोपैथ के डॉक्टर बन गए ।
सन् 1930 का समय था । विदेशी कपडे जलाए जा रहे थे । कांग्रेस में होने के नाते मेरी माँ को भी उन सब कार्यों में भाग लेना था, एक विदेशी वस्त्रो की दुकान के सामने नारे लग रहे थे । हम बच्चे आगे निकल गए । माँ को हम तीनों ढूंढ रहे थे । पुलिसवालों ने हम तीनों को गोद में उठा लिया । पुलिस की लाल पगड़ी देखते ही हमलोगों को वह नारा याद आ गया, जो उस समय रोज ही चारो तरफ सुनने को मिलता था । हमलोग पुलिस के कंधे पर बैठे थे और चिल्ला रहे थे-“लाल पगड़ी स्वाहा,सरकारी कुतिया हाय-हाय ।” पुलिस वाले हमलोगों का जोश देखकर हंस रहे थे ।
सन् 1932 में कांग्रेस का असहयोग आन्दोलन बड़े जोरों पर था । जुलूस निकाला जाता था, धरना दिया जाता था । उसमें मेरी माँ गिरफ्तार कर ली गयी । हम तीनों बहनें सडक पर खड़ी थीं । पुलिसवालो ने हमलोगों से घर का पता पूछा । हमलोगों ने कहा कि सबसे ऊंचा तिरंगा झंडा हमारे घर पर लगा है । इस तरह उनलोगों ने हम तीनों को घर पहुंचाया ।
अंग्रेजों से एक समझौते के अंतर्गत मेरी माँ को प्रथम श्रेणी का ऑनरेरी मजिस्ट्रेट बनाया गया । आजादी की लड़ाई में,छोटी-मोटी गिरफ्तारियों से लेकर फांसी तक की सजा की बहाली में माँ साक्षी बनती थी और कांग्रेस को लिखित रिपोर्ट देती थी । शायद उन्हें एक बार फांसी होते भी देखना पडा था जिसे वह अंत तक नहीं भूल पायीं ।
मेरी माँ कांग्रेस कार्यकारिणी से जुडी थीं जहां श्री जवाहर लाल नेहरु और अन्य दिग्गज नेता भी शिरकत करने आते । नेहरु जी बांदा में मेरे जीजा जी चौधरी वीरेंद्र सिंह के घर भोजन पर अवश्य आते । खाने में शुद्ध घी की बघार वाली अरहर दाल उनकी मनचाही मांग होती ।
किशोरावस्था में, राजमाता विजयाराजे सिंधिया की कॉलेज की पढाई इसी बाँदा निवास से हुई थी जिसका बहुत ही मनभावन विवरण मिलता हैं उनकी आत्मकथा Royale to Public Life[3] के पृष्ठ 47-48 में । इसी बांदा के घर में राजमाता सिंधिया उस समय पुनः ठहरी थीं जब इन्हें गिरफ्तार किया गया था । इमरजेंसी 1975 के दौरान भी इन्होने उसी बाँदा के निवास पर नजरबंदी की इच्छा प्रगट की थी ।
मेरे पिताजी चेतगंज के 5/5 मकान में रहते थे । सड़क के उस पार का हिस्सा सरायगोवर्धन मोहल्ला अत्यंत महत्वपूर्ण था । यहीं श्री जय शंकर प्रसाद रहते थे और सटे बेनियाबाग में रहते थे श्री प्रेमचंद । बड़ी पियरी में हास्यकवि और लेखक श्री कृष्ण देव प्रसाद गौड़ “बेढब बनारसी” का निवास था ।
गौड़ जी के घर मेरा बचपन बीता । उस समय मेरी उम्र चार वर्ष थी । एक दिन मेरी माँ ने कहा- “तुम मास्टर साहब से पढ़ती क्यों नहीं ?“ मैं भागी-भागी गौड़ जी के पास पहुंची । वे उस वक्त कैरम खेल रहे थे । मैंने कहा-“मास्टर साहब हमें पढ़ाईये ।” उन्होंने कैरम की दो गोटियाँ उठाकर पूछा-“यह क्या है ।” मैंने जवाब दिया-“ग्यारह ।” वे बड़े जोर से हंस पड़े और बोले-“तुम मौसी की तरह कविता लिखोगी ।”
मास्टर साहब (गौड़ जी)अक्सर मुझे अपने कंधे पर बिठाकर मेरे घर छोड़ आया करते थे । एक दिन शम्म को लौटते वक्त मैं उनके कंधे पर खड़ी हो गए । उन्होंने पूछा-“ये क्या कर रही हो,गिर जाओगी ।” मैंने कहा-“मैं चाँद पकड़ रही हूँ ।”
एक दिन हमलोग कम्पनीबाग़ से प्रदर्शनी देखकर लौट रहे थे । मास्टर साहब निराला की तारीफ़ करते हुए उनकी एक कविता की पंक्तियाँ सुनाने लगे पर “विजन बन बल्लारी” की जगह उनके मुंह से बन्नरी निकल गया । सब लोग हंसने लगे । हंसने का एक कारण और भी बन गया था । मास्टर साहब सड़क पर शाष्टांग लेटे हुए थे । उनकी मसूरी वाली प्रिय छड़ी मैनहोल के अन्दर गिर गयी थी ।
मास्टर साहब लखनऊ प्रदर्शनी देखने जा रहे थे । बौखलाए हुए थे । उन्होंने इस यात्रा के लिए खासतौर
पर बनारस के प्रसिद्ध दरजी प्रोफेसर सिद्दीकी को सूट सिलने का आर्डर दिया था । समय पर नहीं मिला । सिद्दीकी ने इक्के पर पीछा कर उन्हें
वह नया सूट मुगलसराय स्टेशन पर सुपुर्द किया । मास्टर साहब बड़ी प्रसन्नता से वही
सूट पहन कर प्रदर्शनी घूम रहे थे । उन्हें महसूस हुआ कि सूट की सिलाई खुल रही थी । बेशक खुल रही थी । बहुत सारी जगहों पर कच्ची सिलाई ही
थी । प्रदर्शनी में उनकी पहली खरीदारी तीन दर्जन सेफ्टी पिन की थी ।
एक तो चेतगंज का मकान ऐसी जगह था जहाँ पियरी, गोवेर्धन सराय, बेनिया बाग़,स्टेशन,गौदोलिया सभी जगह आना-जाना सुगम था दूसरे मेरे पिताजी होमियोपैथ डॉक्टर थे जहाँ बैठक लगाने के लिए बेंच और कुर्सियां आसानी से मुहैया हो जाती थी और तीसरे डॉक्टर से मेल-जोल स्वास्थ्य के लिए भी हितकर होता है इसलिए हर सुबह और खासकर शाम को साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं । कल्पना कीजिये जब वहां जय शंकर प्रसाद,निराला,प्रेम चंद,सुभद्रा कुमारी चौहान,बेढब बनारसी की गोष्ठी हुआ करती होगी । एक ऐसी ही शाम मेरे पिताजी एक मरीज के लक्षणों का पता लगा रहे थे । पेट में तकलीफ थी । जाहिर था, पूछना पड़ रहा था कि कहाँ दर्द है कैसा दर्द है- मीठा, कचोटने वाला अथवा मरोड़ वाला । बेढब जी बड़े ध्यान से सबकुछ सुन रहे थे । उन्होंने उस वाकये में मिर्च-मसाला लगा कर एक हास्य लेख प्रकाशित करवा दिया । जो भी पढता लोटपोट हो जाता । शीर्षक था “ चिकित्सा का चक्कर[4]” । आप भी इसके उस विशेष अंश का त्फ़ उठायें:
मेरे
दर्द में किसी विशेष प्रकार की कमी न हुई। ओझा से तो किसी प्रकार की आशा क्या
करता। पर बीच-बीच में दवा भी हो जाती थी। अंत में मेरे साले साहब ने बड़ा जोर दिया
कि यह सब झेलना इसीलिए है कि तुम ठीक दवा नहीं करते। हामियोपैथी चिकित्सा शुरू
करो, सारी शिकायत गंजों के बाल की तरह गायब हो जाएगी। मैंने भी कहा,
'मुर्दे पर जैसे बीस मन वैसे पचास। ऐसा न हो कि कोई कह दे कि
अमुक 'सिस्टम' का इलाज छूट गया।'
अब राय होने लगी कि किस होमियोपैथ को बुलाया जाए। हमारे मकान से
कुछ दूरी पर होमियोपैथ डाकिया था। दिनभर चिट्ठी बाँटता था, सवेरे और शाम दो पैसे पुड़िया दवा बाँटता था। सैकड़ों मरीज उसके यहाँ
जाते। बड़ी प्रैक्टिस थी। एक और होमियोपैथ से चार-छह आने पैदा कर लेते थे। एक मास्टर
भी थे जो कहा करते थे कि सच पूछो तो जैसी होमियोपैथी मैंने 'स्टडी' की है, किसी
ने नहीं की। कुछ बहस के बाद एक डाक्टर का बुलाना निश्चित हुआ। डाक्टर महोदय आए।
आप भी बंगाली थे। आते ही सिर से पाँव तक मुझे तीन-चार बार ऐसे देखा मानो मैं
हानोलूलू से पकड़कर लाया गया हूँ और खाट पर लिटा दिया गया हूँ। इसके पश्चात
मेडिकल सनातन-धर्म के अनुसार मेरी जीभ देखी। फिर पूछा, 'दर्द
ऊपर से उठता है, कि नीचे से, बाएँ
से कि दाएँ से, नोचता है कि कोंचता है; चिकोटता है कि बकोटता है; मरोड़ता है कि
खरबोटता है।' मैंने कहा कि मैंने तो दर्द की फिल्म तो
उतरवाई नहीं है। जो कुछ मालूम होता है, मैंने आपसे कह
दिया। डाक्टर महोदय बोले, 'बिना सिमटाम के देखे कैसे दवा
देने सकता है। एक-एक दवा का भेरियस सिमटाम होता है।' फिर
मालूम नहीं कितने सवाल मुझसे पूछे। इतने सवाल तो आई.सी.एस. 'वाइवावोसी' में भी नहीं पूछे जाते। कुछ प्रश्न
यहाँ अवश्य बतला देना चाहता हूँ। मुझसे पूछा, 'तुम्हारे
बाप के चेहरे का रंग कैसा था। कै बरस से तुमने सपना नहीं देखा। जब चलते हो तब नाक
हिलती है या नहीं। किसी स्त्री के सामने खड़े होते हो तब दिल धड़कता है कि नहीं?
जब सोते हो तब दोनों आँखें बंद रहती हैं कि एक। सिर हिलाते हो तो
खोपड़ी में खटखट आवा आती है कि नहीं।' मैंने कहा,
'आप एक शार्टहैंड राइटर भी साथ लेकर चलते हैं कि नहीं। इतने
प्रश्नों का उत्तर देना मेरे लिए असंभव है।'
मेरे पिताजी ने भी पढ़ा । उन्होंने वो सब भी पढ़ा जो बेढब बनारसी ने मरीज से गुफ्तगू की थी जिस समय पिताजी बगल के कमरे में दवा बनाकर लाने गए थे । पिताजी को क्रोध बहुत भयंकर आता था । बेढब बनारसी के लिए उन्होंने प्रैक्टिस के वक्त दूसरे कमरे में बैठने का इंतजाम कर दिया । स्थिति सुधरने में एक सप्ताह लगा वह भी दूसरों की पैरवी पर ।
मेरे घर श्री जय शंकर प्रसाद हरेक शाम आते थे । जिन्हें उनसे मिलना होता था वे मेरे ही घर पर उनसे मिलते थे । इनमे प्रमुख थे निराला,भगवती चरण वर्मा, सोहन लाल द्विदेदी,जैनेन्द्र कुमार,दिनकर,महादेवी वर्मा और माखन लाल चतुर्वेदी । चेतगंज के इस मकान का और बैठकों का जिक्र इन सभी महानुभावों के लेखो में दिखता है ।
जय शंकर प्रसाद जी जब भी मेरे घर आते मैं धूल से खेलती रहती थी । वे अक्सर कहते कि मेरे घर चलो । मैं झटके से सर हिला देती-“मैं नहीं जाऊंगी ।” उन्होंने मेरे पिताजी से कहा कि क्या बात है जब भी में चिंता(मेरा पुकारने का नाम)को अपने घर चलने को कहता हूँ वो ना कर देती है । बाबूजी ने उनसे कहा कि आप के घर में आम या अमरुद का पेड़ है? आप नाम लीजिये तुरंत जायेगी । उन्होंने मुझसे वैसा ही कहा । प्रसाद जी ने मेरी ऊँगली पकड़ी और मैं उनके घर चल पड़ी । रास्ते भर सोचती रही कि डाल पर कैसे झूलूँगी, पेड़ पर कैसे चढूगी । मैं सोच-सोच कर बेहद खुश थी । मेरे कदम तेज हो गए थे । मैं उनके घर पहुँच गयी । उनके अध्ययन कक्ष के ठीक सामने बरामदे में नीले रंग की जीरो लाइट के नीचे एक गमला रखा हुआ था । उसमें एक आम का पौधा लगा हुआ था । वे गमले के निकट बैठ कर बोले-“देखो चिंता ! यही आम का पेड़ है ।” मेरी आँखों में आंसू झलक आये । मैंने कवि की और देखा । नीली रौशनी में उनके आँखों की ख़ुशी चमक रही थी । वे मुस्कुरा रहे थे ।
एक दिन हम तीनों बहनें शाम के समय पानी में भींगते हुए घर आये । प्रसाद जी को अच्छा नहीं लगा । वो दूसरे दिन घर आये तो उनके हाथ में तीन छाते थे । उनका तम्बाकू का व्यापार था । नक्काशीदार खूबसूरत केशर के डिब्बे आते थे । वो हम तीनों बहनों के लिए खाली डब्बा ले आते ताकि उन्ही डिब्बों में स्कूल की कापी-किताब ले जा सकें । उन डिब्बों को साफ़ करती थी तो उसमें से काफी केशर झरते थे ।
जय शंकर नाम था और उसी के अनुरूप कटु से कटु शब्दों का हलाहल भी आत्मसात कर लेते थे । जब भी मेरे पिताजी कहते कि तुम अपने मन की बात कहते क्यों नहीं? उनका उत्तर होता-“जिनसे मुझे पीड़ा मिलती है,प्रत्युत्तर में मैं पीड़ा नहीं दे सकता,भले ही घुटता रहूँ ।”
मैं पांचवी कक्षा में थी । श्रीधर पाठक की कविता “काश्मीर सुषमा” जो ब्रजभाषा में थी मुझे समझ में नहीं रही थी । मैंने माँ से कहा इसे पढ़ा दो । माँ ने कहा नीचे प्रसाद जी बैठे हैं,जाकर पढ़ लो । मैं किताब लेकर दौड़ी-दौड़ी उनके पास गयी । मैंने कहा-“प्रसाद जी ! काश्मीर सुषमा पढ़ा दीजिये ।” उन्होंने कहा कि यह वाणिकी काव्य है,ब्रजभाषा में लिखी गयी है । इसके कवि श्रीधर पाठक हैं । यह रोड़ा छंद है । मैंने छूटते ही कहा-“यह रोड़ा-कंकड़ क्या होता है ।” उन्होंने बड़े गुस्से में कहा-“देंगे एक रपोटा । चुप से पढो ।”
यह हिंदी भाषा भी कितनी वैभवशालिनी है । एक भावोद्रेक के लिए इसके पास कितने शब्द हैं । चपत की मात्रा किस प्रकार बढती है ,जरा देखिये- चपटा, थप्पड़, लप्पड़, झपडियाना और अंत में आता है रपोटा । इसको खाने वाला अपनी जगह से कम से कम २० कदम दूर फिक जायेगा । कवि ने मुझे मारा नहीं था लेकिन उस समय सोचकर ही मेरे कान गरम हो गए थे ।
प्रसाद जी दावत देने के बहुत शौक़ीन थे । बस बहाना मिलना चाहिए था । चूड़ा-मटर और मगदल शुद्ध घी में बना करता था । यह जाड़े के दिनों का प्रिय व्यंजन था । इसे खिलाने के लिए तीन-चार सौ लोगों को न्योता देते थे ।एक बार प्रसाद जी सबों को दावत पर बुलाये । सफ़ेद लम्बी चादर बिछी थी । उसपर सिरके का दाग था । चाँद की रौशनी में वह एकदम एकन्नी दिख रही थी । उनका लड़का और हम तीनों बहनें एक साथ दौड़े और एक स्वर में कहा कि मेरी एकन्नी है ।
प्रसाद जी कभी विदेशी वस्त्र नहीं पहनते थे । उन्हें हाथ से बुने स्वेटर पहनने की इच्छा थी । वो खादी ग्रामोद्योग से धुले आकाश के नीले रंग का महीन ऊन ले आये । मेरी माँ ने उस ऊन में रेशम की डोरी लगाकर स्वेटर और टोपी बनायी । उन्हें दोनों ही चीज बहुत पसंद आयी । यही स्वेटर और टोपी पहनकर वे प्रगतिशील साहित्यकारों की सभा में लखनऊ गए । उन्ही दिनों प्रसाद जी नीले फाउंटेन पेन से “कामयाबी” लिख रहे थे । उनके मरणोपरान्त वही नीली टोपी और फाउंटेन पेन नागरी प्रचारिणी सभा,काशी के संग्रहालय में रखा गया ।
पहले प्रसाद जी ब्रज भाषा में कविता लिखा करते थे । उन्होंने जब कविता खड़ी बोली में लिखना प्रारंभ किया,जहां भी अपनी रचना प्रकाशित करने के लिए भेजते थे,अस्वीकृत हो जाती थी । उन्होंने परेशान होकर “इंदु” नामक पत्रिका स्वयम निकाली । उसमें अपनी रचना तो देते ही थे साथ ही अपने सहयोगियों की रचना भी छपवाते थे । इस प्रकार उन्हें लोकप्रियता प्राप्त हुई । साहित्य जगत के इस नवउन्मेष में वे एक सशक्त प्रतिभाशाली साहित्यकार के रूप में उभरे । उन्होंने साहित्य के सर्वांगीण क्षेत्रो को अपनाया । यही नहीं इनके नाटक बड़े ही खोजपूर्ण, शोध प्रक्रियाओं के साथ सामने आते थे । एक प्रकार से देखा जाये तो वे अपनी भारतीय सभ्यता के विचारक एवं तथ्यों को खोजने वाले भी थे ।
मैं सन् 1937 में गर्ल्स स्कूल कमच्छा में सातवी कक्षा की छात्रा थी । इस समय मेरी उम्र 14 वर्ष थी । मेरे स्कूल में हर वर्ष निबंध प्रतियोगिता होती थी । इस वर्ष भी इसका आयोजन किया गया । निबंध का विषय था”दया धर्म को मूल” । निर्णायक के रूप में श्री विश्वनाथ प्रसाद मिश्र आये थे । वे हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष थे । यह निबंध प्रतियोगिता सातवी से लेकर दसवी कक्षा की छात्राओं के मध्य था । इस प्रतियोगिता में मैं प्रथम आयी । इस लेख को श्री विश्वनाथ प्रसाद जी ने बी0ए0 और एम०एके छात्रों के बीच रखा । वे छात्र भी उस गुणवत्ता को न दिखा सके । इस लेख में मैंने कामायनी और निराला के काव्यो से उद्धरण दिया था । स्कूल के वाद-विवाद प्रतियोगिता में भी मैं प्रथम आती रही थी ।
श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी”निराला” जब भी इलाहाबाद से बनारस आते,मेरे घर जरूर आते थे । मेरी माँ से कहते-“कमला, तुम बैसवाड़े की हो इसलिए तुम्हारे यहाँ भोजन करता हूँ । मैं तुम्हारा राज पुरोहित हूँ । बीरबल का वंशज हूँ ।
गौड़ जी के घर एक बार कवि सम्मलेन था । उसमें बाहर के कवि भी सम्मलित थे,जैसे सोहनलाल द्विदी,सियाशरण गुप्त,निराला,चंद्रमुखी ओझा,श्रीमती सुमित्रा कुमारी सिन्हा आदि । कविता पाठ हो रहा था । बी0टी0 कॉलेज के प्रोफेसर श्री सीताराम चतुर्वेदी ने कुछ इस तरह कविता पाठ करना शुरू किया-
कोयलिया मीठी बोल न बोल
कोयलिया मीठी बोल न बोल
कोयलिया मीठी बोल न बोल
इसपर निराला जी बहुत जोर से हंस पड़े
और उन्होंने इस तीन बार क्रमशः का उत्तर इस प्रकार दिया-“साधो तुमसे न होईहे साबुन
को व्यापार ।”
मेरी उम्र पंद्रह वर्ष की थी । मैं बहुत ज्यादा अस्वस्थ थी । डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था । मृत्यु किसको अच्छी लगाती है । यह सोचकर मन दुखित था । मेरे पास कलम थी कागज नहीं था । मैंने अपनी बायी हथेली पर कविता लिखी । मेरी बीमारी के बारे में सुनकर नीचे
दवाखाने से ऊपर कमरे में आ गए । उन्होंने कहा- “बेटी, मैं तुम्हारा नब्ज देखना चाहता
हूँ ।” वो पास की कुर्सी पर बैठ गए । मैंने अपना दाहिना हाथ बढ़ाया । उन्होंने बायी कलाई आगे बढाने को कहा । मैंने मुठ्ठी बांधे-बांधे बाया हाथ आगे बढ़ा दिया । उन्होंने मेरी मुठ्ठी खुलवाई । निराला जी ने मेरी हथेली अपने सामने
रखकर वह कविता पढ़ी-
झंझा की सबल झकोंरें ह्रदय में,
आँखों में, जलते, कांपते जल कण ।
सुख है या दुःख आहत मन में,
बढ़ता सुख या पीड़ा का क्षण ।
उद्वेलन है श्रांत ह्रदय का यह,
या है पीड़ा की मधुर अंगडाई ।
जीवन लय होता शीतलता में,
या शीतलता जीवन में आयी ।
उन्हें हथेली के ऊपर लिखी इन पंक्तियों को पढने में काफी समय
लगा, क्योंकि अक्षर छोटे-छोटे थे । उन्होंने बड़े ध्यान से मेरे चेहरे को देखा और बोले- बेटी, असमय
में जिस वृक्ष पर मंजर आ जाते हैं उसके फल अच्छे नहीं होते । अभी अध्ययन करो ।”
निराला जी अक्सर मेरे कमरे में आ जाया करते । वह मेरे टेबल के पास मौन खड़े हो जाते । जो कुछ भी मैं लिखती रहती, गौर से
पढ़ते । एक दिन बोले-“ बेटी मैं तुम्हारी सुन्दर हस्तलिपि
देखने ऊपर आता हूँ ।” कवि प्रकृति की कोमल भावनाओं के प्रेक्षी ही नहीं थे । मैंने उनसे कहा कि आपकी कविता “राम की शक्ति पूजा” पढ़ रही थी । उन्होंने पुनः गौर से मेरी तरफ देखा और कहा कि बच्ची
जब पोस्ट ग्रेजुएट हो जाओगी तब मैं तुमसे इस पर बात करूंगा । उनके सामने मैं चुप सी खड़ी थी, क्या
कहती कि मैं साहित्यरत्न की परीक्षा दे रही हूँ । हिंदी साहित्य रत्न, हिंदी साहित्य
सम्मलेन प्रभाग की अखिल भारतीय परीक्षा थी । इस परीक्षा में श्री मोती उपाध्याय जी जो राजेंद्र कॉलेज छपरा
के प्राचार्य थे, वह प्रथम हुए और मेरा स्थान द्वितीय रहा ।
सन् 1939 में नागरी प्रचारिणी सभा का
एक विशाल साहित्यिक समारोह हुआ था । इसमें भारतवर्ष के लगभग सभी हिंदी साहित्यकार आये थे । इसके अध्यक्ष थे श्री अम्बिका प्रसाद
वाजपयी । अचानक पंडाल की रौशनी चली गयी । अँधेरे में अफरा-तफरी मच गयी । ऐसा लगा कि अँधेरे में कहीं भगदड़ न
हो जाए । भीड़ को स्थिर करने का उपाय नजर नहीं आ रहा था । अचानक लोगों का ध्यान निराला जी पर
गया । लोगों ने उन्हें मंच पर भेजा । उनके चेहरे पर टार्च की रौशनी फेंकी
गयी । निराला जी का गंभीर स्वर गूँज उठा-
“जागो फिर एक बार,
सिंह के मांद में आया है आज सियार ।”
एकदम सन्नाटा छ गया । थोड़ी देर में लाइट लौट आयी ।
श्री प्रेमचंद जी मेरे पिताजी के दवाखाने में आये । वहीँ श्री जय शंकर प्रसाद जी भी कुर्सी
पर बैठे थे । दोनों ही एक दूसरे के लिए अपरिचित थे । मेरे पिताजी ने दोनों का परिचय करवाया । इस नगण्य के घर में उस समय दो-दो सम्राट
थे, एक कवि सम्राट और एक उपन्यास सम्राट दोनों ही आमने-सामने थे ।
प्रेमचंद जी के सामने मैंने चाय की प्याली रखी और साथ में मटन
चॉप । उन्होंने खाने से इन्कार कर दिया । मेरे पिताजी ने उनसे कहा-“तुम्हारा कैनाइन टीथ है क्यों नहीं खा रहे ह? इसपर प्रेमचंद जी बड़े जोर से हँसे
और उन्होंने खाकर चाय पी ।
प्रेमचंद जी बेनिया बाग़ में रहते थे जो मेरे घर से डेढ़ फर्लांग
की दूरी पर था । मेरे घर के पिछवाड़े सटा हुआ एक खपड़े का कच्चा घर था । यह घर मेरे और उनके घर के बीच में
पड़ता था । इस घर में तीन परिवार थे । इसमें जुलाहे और इक्केवान रहते थे । दरवाजे पर मोटे-मोटे टाट के परदे थे । कभी-कभी एक गोरा सा हाथ हरी चूड़ियों
में टाट पकडे हुए दिख जाता था । इस घर की औरतें टिकली रंगती, रूमाल बनाती और क्रोशिया से लेस
उतारती थीं । उनके ये सारे सामान कोई बेचने के प्रयोजन से ले जाता था । उनका उपन्यास “कर्मभूमि’ सरायगोवर्धन की सकीना का जन्म इसी खपरैल के
घर में हुआ ।
लक्ष्मण जी मौसा और सुभद्रा मौसी जब जेल से निकले उनके सामने
अपनी बड़ी बेटी सुधा के विवाह की समस्या थी । जिस भी राजपूत परिवार में जाते बहुत तिलक मांगा जाता । उन्होंने कहा कि हमलोगों का सारा जीवन
देश के लिए जेल में बीता, हमारे पास जोड़ी हुई संपत्ति कहाँ है । वे मध्य प्रदेश घूमकर बिहार में भी
लड़के की तलाश में आये । यहाँ और भी अधिक तिलक की बात सुनने को मिलती थी । इसी बीच उनकी बातचीत प्रेमचंद और उनके
पुत्र अमृत राय से हुई । अमृत राय ने विवाह की इच्छा प्रगट की । मौसी ने तुरंत स्वीकृति दे दी । यह सुनकर बिहार के प्रमुख स्वंत्रता
सेनानी और राजनीतिज्ञ श्री अनुग्रह नारायण सिंह ने मौसी से कहा-“सुभद्रा, तुम बिहार का कोई भी राजपूत लड़का पसंद कर लो,मैं शादी करवा दूंगा ।” मौसी ने कहा कि वे निर्णय ले चुकी
हैं । सुधा की शादी श्री अमृत राय से हो गयी ।
सन् 1940 की बात है । प्रयाग में सुन्दर मौसी के “सुन्दर सदन” में हमलोग कुछ दिन के लिए गए । शाम के समय लॉन में पेड़ के नीचे निराला
जी, राम कुमार वर्मा जी एवं दो अपरिचित कवि और थे जिन्हें मैं नहीं जानती थी । सुन्दर मौसी,मेरी माँ और मैं भी वहां
बैठी थी । बातचीत होते-होते कविता पाठ आरम्भ हुआ । पहले निराला जी,राम कुमार वर्मा,सुन्दर
मौसी,माँ और अंत में मुझे भी कविता सुनाने को कहा गया । मैंने दो कविता सुनायी । एक तो वो जो निराला जी ने मेरी हथेली
पर लिखा पढ़ा था । दूसरी कविता यह थी-
आशाओं की छलना में,सुखों की प्रवंचना में,
धूप बना मन घूम रहा,ताराओं की कलना में ।
नीचे धरा,ऊपर नभ,युग-युग का बंदी मानव,
अपनी परवशता में,हुंकार उठा बनकर दानव ।
इस कविता को सुनकर निराला जी मौन रहे । श्री राम कुमार वर्मा ने कहा-“प्रौढ़ रचना ओजपूर्ण प्रवाह एवं प्रखर अभिव्यक्ति है ।”
सन् 1944 में पटना विश्वविद्यालय में
साहित्यिक समारोह आयोजित किया गया था । इस समारोह में बड़े-बड़े साहित्यिक आये थे । सुभद्रा मौसी भी आयी थीं । उन्होंने मेरे पति श्री रणधीर सिंह
से कहा कि इस विवाह से मैंने तुमलोगों के लिए रास्ता खोल दिया है ।
हमलोग कुछ लड़कियां मिलकर हस्तलिखित पत्रिका निकालते थे । उसमें छोटी-छोटी कविता और कहानियां
दिया करती थी । उन्ही दिनों ‘बालक’ जिसके सम्पादक श्री शिव पूजन सहाय थे,उस पत्रिका में भी मेरी कवितायें प्रकाशित
होती थीं ।
राजपूत एवं क्षत्रिय-मित्र आदि पत्रिकाओं के मुख पृष्ठ पर भी मेरी रचना प्रकाशित
होती थी । इसके बाद कलकत्ता से निकलने वाले दैनिक सन्मार्ग अखबार में
मेरी कविता,कहानी एवं नाटक प्रकाशित होते रहते थे ।
विवाह के बाद मैं आकाशवाणी पटना से जुड़ गयी । उन दिनों आकाशवाणी पटना में श्री प्रफुल्लचन्द्र
ओझा”मुक्त” प्रोड्यूसर थे । वे मेरी रचनाओं की अत्यधिक प्रशंसा किया करते थे । वहां मञ्जूषा से मेरी कहानी प्रसारित
हुआ करती थी । मेरे पति सरकारी पदाधिकारी थे । उनका तबादला होता रहता था । वे रांची एच०ई०सी० में सचिव होकर आये । हमें कई वर्षों तक रांची में ही रह
जाना पड़ा । मैं आकाशवाणी रांची से सम्बद्ध हो गयी । यहाँ नाटक विभाग में श्री प्रकाश पन्त
थे । मेरा नाटक ‘जलती लक्ष्मण रेखा’ चर्चा का विषय बना । इसी तरह श्री जनार्दन राय के समय में मेरा नाटक ‘नदी के किनारे’ बहुत पसंद किया गया । आकाशवाणी से मेरी कवितायें भी प्रसारित होती थी । महिला जगत में मेरी कई कहानियां आयी । आकाशवाणी रांची में मैंने कितनी बार
विभिन्न हिंदी विषयों पर संचालन भी किया । पटना के दैनिक आर्यावर्त में मेरी कहानियां निरंतर छपती रहीं ।
मैं कविता, कहानी, नाटक तो लिखती रही साथ ही उपन्यास और महाकाव्य
लेखन की और भी अग्रसर हुई । सामाजिक कुरीतियाँ,अंधविश्वास के प्रति भी मेरा स्वर मुखर हुआ । मैंने आठ सर्गों का एक महाकाव्य लिखा
जिसका शीर्षक था ‘अनुत्तरे’ । इसका विषय नारी स्वतंत्रता और नारी
पराधीनता थी जिसमें मैंने यह प्रदर्शित किया कि नारी आज ही नहीं अपितु रामायण काल से
शोषित होती रही । रामायण की अग्नि परीक्षा देती सीता इसका ज्वलंत उदहारण है । महाभारत की कुंती और द्रौपदी चौका
देने वाली नारियां हैं जिसके नारीत्व का सामाजिक अधिकारों, स्वार्थों, शोषण के प्रति
कोई मूल्य नहीं रहा । पांडू से विवाहित कुंती का कोई कारण नहीं था कि वे देव पुत्र
की माता बनती । महाभारत युग की अनिद्य सुंदरी ध्रुपद कन्या द्रौपदी जो शर्तों
के अनुसार मतस्य नयनभेदी अर्जुन से विवाहित थी,वह पांच पांडवों की पत्नी बनती । नारी शोषण का इससे अधिक लज्जाजनक और
गर्हित रूप क्या हो सकता है, जो एकमात्र अर्जुन की पत्नी होते हुए भी पांच पुरुषों
में बंट गयी । सूर्य पुत्र कर्ण था जो कुंती का ज्येष्ठ पुत्र होते हुए भी
अधिरत सूत्र कहा जाता था । अपने युग का वह सर्वश्रेष्ठ योद्धा था । उसे स्वयंवर में यह कहकर स्थान नहीं
दिया गया कि वह सूतपुत्र है । उसे किसी भी प्रतियोगिता में भाग नहीं लेने दिया जाता था क्योंकि
गुरुलोग जानते थे कि यह नर कहा जाने वाला पुरुष अर्जुन को परास्त कर सकता है । इस प्रकार राजपुरुष, राज्यपांडव’ साम्राज्य का अधिकारी होते हुए भी सब जगह अपदस्थ हुआ ।
आज भी चाहे हमलोगों का समाज हो या कोई भी समाज,सम्मलित परिवार
में जो आर्थिक रूप से कमजोर होता है,वह तो शोषित होता ही है,उसकी आने वाली पीढियां
भी शोषण का शिकार बनती हैं । सामाजिक परिवेश में रूढ़ीग्रस्त समाज के भीतर यह कर्म कालजयी
है । यह न मरा है और न मरेगा । यही दशा स्त्रियों की भी है । आज भी स्त्रियाँ असुरक्षित, आर्थिक
परतंत्रा से जकड़ी अस्तित्वहीन पुरुषों की नृशंसता में कठपुतली के समान उनके संकेतों
पर चल रही हैं क्योंकि उनके पैरों के नीचे सबल धरा नहीं है । इन्ही सारी बातों को कविता के रूप
में ‘अनुत्तरे’ में दिया गया है ।
मेरे दूसरे महाकाव्य का शीर्षक ‘अमृतेय बुद्ध’है । यह भगवान् गौतम पर आधारित है । यह 28 सर्गों में निबद्ध है । सामाजिक पृष्ठभूमि पर दार्शनिक रचना
है । प्रत्येक सर्ग एक दूसरे से अलग होते हुए भी एक दूसरे से सम्बंधित
हैं । इसमें विश्वमैत्री,दया,सहिष्णुता,आडम्बर सहित आत्म-उत्थान की सरल निःश्रेणी का निरूपण है । इसमें जातिगत भेद भावना नहीं है । भारतीय दर्शन की वह पतित पावनी गंगा
अवतरित हुई है जो आनंद प्रेक्षी है । इसमें ‘वसुदैव कुटुम्बकम’ का आदि स्वर भास्वर हुआ है । जैसा कि बौद्धधर्मी कहते हैं “भगवान्
बुद्ध ने आत्मा को नहीं स्वीकारा । गौतम बुद्ध का धर्म हमारे धर्म के भारतीय दर्शन से अलग है । यह एक अलग ही विचार को धारण करता है ।‘ किन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है । भारतीय दर्शन के जिस अथाह सागर से
गौतम बुद्ध ने आलोडन निमज्जन किया है और सारभूत अंजलि भर जल लेकर निकले वह भारतीय दर्शन
का ही निचोड़ है ।
भारतीय दर्शन एक विशाल वटवृक्ष है । अपनी जड़ों में यह भारतीय आत्मा का
रस ग्रहण करता है । शाखा प्रशाखाओं में पल्लवित होता है । इसे कोई भी नाम दे लो लेकिन उसकी धड़कनें
भारतीय दर्शन है । वेद,उपनिषद के पहले किस धर्म का अवतरण हुआ था ? अगर नहीं हुआ
तो विश्वव्यापी वह आर्य संस्कृति नहीं थी ।
यूनान के राजा मैड्रेक जब भारत आये तब वह गौतम बुद्ध से मिले थे । उनका परस्पर का वार्तालाप “मिलिंद
प्रश्न” के नाम से है । गौतम बुद्ध और मैड्रेक में जो तर्क हुए थे वह संस्कृत और पाली भाषा में थे । इस समय कौन सा नया धर्म पल्लवित हुआ
था ? अतः बुद्ध धर्म,बाइबिल,कुरआन,जुरुस्थ,पार्सिया का धर्म जो परुशराम को मानता है सबके भीतर एक ही धड़कन है,परिवेश जो
भी हो ।
अमृतेय बुद्ध में तीन पात्र मुखर हैं- दस्यु अंगुलिमाल, चंदा
चंडाल कन्या और आम्रपाली । अंगुलिमाल असाधारण दस्यु है । वह तक्षशिला का प्रबुद्ध स्नातक है । उससे गुरु दक्षिणा में गुरु ने ऊँगली
मांगी । उसे शापभ्रष्ट कर दिया । एक हज़ार उँगलियों के लिए वह कितनी
अंतर्वेदना से गुजरा होगा । यह प्रश्न यहाँ अत्यंत मुखर है । वह जीवन की विषमताओं को ही नहीं शिक्षकों
के उत्तरदायित्वों को भी चुनौती देता है ।
चंदा जिसे मगध सम्राट बिम्बिसार ने मद-महोत्सव में सर्वप्रथम
आने पर भी इसलिए मृत्युदंड दिया क्योंकि वह शूद्र है,चांडाल कन्या है । वह कला को जीवन का सत्य मानती है । किसी भी आश्रय को ग्रहण नहीं करती । वह कहती है कि सच्चा कलाकार सत्यार्थी
होता है,जीवन सत्यों का अन्वेषक होता है ।
आम्रपाली वैशाली की आठवीं मनोनीत जनपद कल्याणी है । वह किसी राजकुल के अज्ञात राजकुमारी
की अवैध संतान है । महानाम को आम्रवृक्ष के नीचे मिली है, इसलिए वैशाली के अमात्य
महानाम ने उसका नाम आम्रपाली रखा । वैशाली के नियमों के अनुसार वह कुलवधू नहीं बन सकी । इसका आक्रोश उसमें कम नहीं है । वह भी विषय लोलुप समाज के सामने एक
चुनौती बनकर आती है ।
मेरा साहित्यिक जीवन स्वांत सुखाय रहा । मेरी तीन पांडुलिपियाँ काव्य की हैं,
छ उपन्यास, दो नाटक संग्रह और दो कहानी संग्रह । कवितायें लिखने का सिलसिला अभी जारी
है । कोई भी संवेदनशील कवि जब लेखनी उठाता है तो उसकी दृष्टि कहीं
बहुत दूर देखने लगती है और वह सच्चाईयों को छूने लगता है । कवि प्रसाद जी के शब्दों में-
काली आँखों का अन्धकार,
जब हो जाता है वार-पार,
मद पिए अचेतन कलाकार,
उन्मीलित करता क्षितिज पार,
वह चित्रांग का ये बहार ।
वस्तुतः कवि जीवन-दर्शन को ही अपने शब्दों में प्रतिबिंबित करता है । अतः मैं अपने विषय में क्या कंहूँ । मैं स्वयम नहीं समझ पाती कि मैंने
क्या लिखा है, क्यों लिखा है । कोई नदी जब पर्वत से निकलती है,उसे पथरीली चट्टानें मिलती हैं । उर्वर और ऊसर भूमि मिलती है । तटों पर स्थापत्य के भग्नावशेष मिलते
हैं । कहीं गौरव के इतिहास मिलते हैं तो कहीं खेतों में पीठ पर नवजात
शिशु को बांधे काम करती, चिलचिलाती धूपमें मजदूर स्त्रियाँ दिखती हैं । टूटी झोपड़ियों में गीली लकड़ियों का
कडुवा धुआं दिखता है । भोले-भले बच्चों की कच्चे दूध की आँखों में जठर ज्वाला तड़पते
हुए दीखते हैं । नदी इन सब को छूती हुई बहती है । यह तो उसकी बादल चेतना है । अंतरजगत विविध सतरंगों से पूरित एक
व्याकुल तड़पती आत्मा है जो किसी अज्ञात पीड़ा के पीछे दौड़ती है और किसी सत्य को खोज लेना चाहती
है । शायद यही काव्य है । यह वेदना किसी एक वर्ग विशेष की नहीं है जिस दर्द को कवि लेखनी
में खोजता है । चित्रकार इसी को तूलिका में खोजता है । संगीतज्ञ सुरों में खोजता है । नर्तक घुन्घुरों में खोजता है । यह एक ही चोट है जो नाना रूपों में
विकीर्ण है । अतः यह निरंतर सत्य की खोज है । सच्चा कवि एक योगी होता है । उसका काव्य पराजगत के संवेदनशीलता
को स्पर्श करती है । वाह्य सौन्दर्य में उसकी उलझती हुई दृष्टि अन्तःचेतना के दर्पण
को देखती है । यही उसका साकार व्यक्तित्व निराकार में अन्तर्निहित होने लगता
है । सच्चा कलाकार वही है जो हर रूप रंगों में ढलकर भी अपने व्यक्तित्व
को अक्षुण्ण रखता है । मैंने जो अंतर-यात्रा की उसे जो भी कह दिया जाये । उसने किसी के भी पीड़ित ह्रदय के अंतरद्वंदों,घात-प्रतिघातों
को जीवन तथ्यों के साथ बटोरा है ।
[1]
राज बहादुर सिंह : http://hindi-blog-podcast.blogspot.in/2007/09/subhdra-kumari-chauhan-laxman-singh.html
[2]
Crosthwaite Girls
College: http://www.icbse.com/schools/crosthwaite-girls-college/09452211108
[3]
Royale
to Public Life : https://books.google.co.in/books?id=OEObDAAAQBAJ&pg=PA46&lpg=PA46&dq=vijayaraje+scindia%2BBanda&source=bl&ots=KaUpR4gIKA&sig=tIzhEWccEBX8UAbP3dxTFtjOAGU&hl=en&sa=X&ved=0ahUKEwiWvOjNlf_OAhVIbhQKHUGGDPIQ6AEIQTAF#v=onepage&q=vijayaraje%20scindia%2BBanda&f=false
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